“भाइयों और बहनों राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।“ – रेडियो पर इंदिरा गाँधी का यह संदेश 26 जून 1975 की सुबह, आकाशवाणी के माध्यम से समूचे देश ने सुना और सभी देशवासी स्तब्ध रह गए। संविधान के अनुच्छेद 352 का सहारा लेते हुए 25 जून 1975 की मध्यरात्रि को इंदिरा गाँधी की सरकार की सलाह पर देश में राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल लगाया। जिसका सीधा सा मतलब था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी जब तक चाहे सत्ता में बनी रह सकती हैं।

राष्ट्रपति के हस्ताक्षार ने आज़ाद भारत के नागरिकों से उनके मौलिक अधिकार तक छिन लिए। यह आपातकाल करीब 21 महीनों तक देश पर क्रूरता से लागू रहा। आपातकाल 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक रहा। 25 जून को देश के इतिहास में “ब्लैक डे” से संबोधित भी किया गया है। आपातकाल एक ऐसा समय है , जिसके लागू होने पर संवैधानिक तौर पर जनता से उनके मौलिक अधिकारों को (अनुच्छेद 19) छीन लिया जाता हैं, लेकिन अनुच्छेद 20 और 21 सक्रिय रहते हैं । लेकिन इस आपातकाल में न केवल अनुच्छेद 19 के तहत अधिकार छीने गए बल्कि अनुच्छेद 20 और 21 का भी हनन हुआ – जैसे जबरन नसबंदी , विपक्षी नेता जैसे – जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडिस आदि को मीसा कानून के तहत जेल भेजा गया , और काफी जाने भी गई।
इन्हीं कारणवश आपातकाल को काला काल कहना बिल्कुल सटीक है। आज देश के इतिहास में लोकतंत्र पर काला धब्बा साबित होते हुए, आपातकाल को 46 साल हो चुके हैं , परंतु आज भी इसकी भयानक यादें लोगों के ज़हन से जाती नहीं। आज हम इस लेख के माध्यम से आपको बताने वाले हैं आपातकाल के पीछे की पूरी कहानी….
साल 1975 में लगे आपातकाल को लेकर अक्सर कई सारे सवाल ज़हन में आते हैं. जिनमें से सबसे ज्यादा चर्चित सवालों के बारे में आज हम विस्तार से जानेंगे।
- आपातकाल के पीछे का असल कारण क्या था?
- क्या आपातकाल केवल इंदिरा गांधी का फैसला था ?
- क्या इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने के लिए आपातकाल लगाया ?
- आपातकाल के दौरान, जनता को क्या-क्या झेलना पड़ा ?
- सेंसरशिप के बावजूद आपातकाल की जानकारी लोगों को कैसे मिली ?
आपातकाल के पीछे का असल कारण क्या था?
इंदिरा गांधी भारतीय राजनीतिक इतिहास की एक दमदार शख्सियत वाली पहली महिला प्रधानमंत्री थीं। जब भारत और पाकिस्तान के युद्ध में भारत विजय हुआ था। तो उस समय इंदिरा गांधी की खूब तारीफ हुई थी लेकिन आपातकाल के उस दौर में इंदिरा गांधी एक तानाशाह बनकर उभरी। उस समय एक नारा भी दिया गया इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया। ये नारा उस समय देव कांत बरुआ ने दिया था। ऐसा ही एक नारा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिटलर के लिए दिया गया था। जो आपातकाल के समय में कांग्रेस पार्टी ने इंदिरा के लिए इस्तेमाल किया और इसका भारी खामियाजा भी इन्हें साल 1977 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला।
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यूं तो सरकार के अनुसार आपातकाल का कारण घोर “आंतरिक अस्थिरता था” इस आंतरिक अस्थिरता का दरअसल मतलब था सरकार के विरुद्ध जनता का आक्रोश, जो बढ़ती मंहगाई, भ्रष्टाचार, सरकार के मनमाने फैसले-जैसे राजभत्ता ख़त्म (प्रिंसली स्टेट के भत्ते) करना, बैंको का निजीकरण होना, मेस के शुल्क की बढ़ोत्तरी इत्यादि। इन्हीं कारणों के चलते जगह- जगह कांग्रेस के विरुद्ध प्रदर्शन हो रहे थे। लेकिन राजनीतिक विशेषज्ञों ने आपातकाल का सबसे बड़ा कारण इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक केस को बताया , जिसमेंइंदिरा के प्रतिद्वंदी राजनारायण ने इंदिरा पर 1971 में रायबरेली चुनाव को जीतने पर संदेह जताते हुए उन पर चुनाव में धांधली/जालसाझी करने, सरकारी मशिनरी का दुरुपयोग करने की आरोप लगाया था।
इसी केस का फैसला आपातकाल की पृष्ठभूमि रखता है क्योंकि इस फैसले ने मानों इंदिरा गांधी की शख़्सियत को चुनौती दी थी। फैसला राजनारायण के पक्ष में था, और कोर्ट ने इंदिरा के रायबरेली चुनाव को निरस्त कर दिया था और साथ ही इंदिरा को छह साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया था। जिस दिन ये फैसला आया- यानी 12 जून 1975, इंदिरा के लिए बहुत ही मुसीबतों वाला दिन रहा, क्योंकि इसी दिन एक तो इंदिरा के करीबी डीपी धर का देहांत हुआ था दूसरा इलाहाबाद हाई कोर्ट का इंदिरा के विरूद्ध फैसला और तीसरा गुजरात विधानसभा में कांग्रेस की पराजय।

इसके बावजूद इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को अस्वीकार कर, फैसले को इंदिरा ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी थी, लेकिन कोई फायद़ा नहीं हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट का फैसला बरकरार रखा और ऐसे में कांग्रेस के पास इंदिरा के जैसा कोई भी प्रभावशाली नेता नहीं था। इसी के चलते इंदिरा ने बंगाल के सी.एम और संवैधानिक मसलों के विशेषज्ञ माने जाने वाले सिद्धार्थ शंकर रॉय की राय ली, और उन्होंने आपातकाल लगाने का उपाय सुझाया।
क्या आपातकाल केवल इंदिरा गांधी का फैसला था ?
अब सवाल आता है कि क्या आपातकाल लगाने फैसला अकेले इंदिरा के दिमाग की उपज थी? दरअसल आपातकाल का उपाय सिद्धार्थ शंकर रॉय ने सुझाया था जिसे बाद में इंदिरा भी अपनाने का निर्णय किया। अब बात थी इस कठोर निर्णय को राष्ट्रपति तक पहुँचाने की। कैथिरिन फ्रैंक अपनी किताब- इंदिरा में बताती हैं कि इंदिरा चाहती थी कि ये बात रॉय खुद राष्ट्रपति तक लेके जाएं, इस पर रॉय ने कहा कि वो सिर्फ मुख्यमंत्री हैं प्रधानमंत्री नहीं, वो उनके साथ चल सकते हैं, लेकिन बात तो खुद इंदिरा को ही राष्ट्रपति के समक्ष रखनी होगी। देर रात राष्ट्रपति को हालात समझाने के बाद राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद अपने हस्ताक्षर कर देश में आपातकाल लगा देते हैं। अब बात थी जनता को बताने/समझाने की , इसके लिए इंदिरा के साथ रॉय और कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ “देश के नाम संदेश” लिखने में जुट गए।
वहीं संजय गांधी भी इस फैसले में अपनी माँ के साथ थे, जैसे मानों उनके दिल की इच्छा पूरी हो गई- सभी एक कमरे में लिस्ट बना रहे थे उन नेताओं की , जिन्हें वो गिरफ्तार करवा सके, साथ ही प्रेस की बिजली रातों-रात काटने का फैसला संजय गांधी था। साथ ही जबरन नसबंदी और तुर्कमान गेट की बर्बरता भी संजय का फैसला था। यह सब देखते हुए जानकारों का यह भी कहना था कि, उस वक्त स्पष्ट था कि सरकार भले ही इंदिरा गांधी की थी, लेकिन चला संजय गांधी रहे थे।
क्या इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने के लिए आपातकाल लगाया ?
न्यायपालिका से कानून संशोधन पर पहले से ही टकराव होना , साथ ही इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के बाद इंदिरा का चुनाव रद्द हो जाना, फिर 6 साल के लिए प्रतिबंध लग जाना और सुप्रीम कोर्ट से भी कोई राहत न मिल पाना। ये कुछ ऐसा हो रहा था जो इंदिरा जैसी महत्त्वाकांक्षी महिला के साथ जो वो बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी और इन्हीं कारणों को उन्होंने आंतरिक अस्थिरता कहकर आपातकाल लगाया था। लेकिन राजनीतिक गलियारों में ये काफी साफ था कि दरअसल इंदिरा अपने हाथ से सत्ता जाने नहीं देना चाहती थी।

गरीबी हटाओ का नारा देने वाली इंदिरा ने 1972 तक समूचे देश में केवल तमिलनाडु को छोड़ कर अपनी सरकार बनाई। लेकिन गुजरात और बिहार में जनाक्रोश के चलते उनके मुख्यमंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा और उसी 12 जून को जब इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आया था, उसी दिन उनके हाथों से गुजरात भी निकल गया। कांग्रेस के विरुद्ध इतना जनाक्रोश फैल चुका था कि इंदिरा को अपनी सत्ता हाथो से जाती साफ दिख रही थी और कांग्रेस के पास इंदिरा के मुकाबले कोई विकल्प भी नहीं था। ऐसे में सिद्धार्थ शंकर रॉय का आपातकाल लगाने का सुझाव इंदिरा को रास आया।
वहीं इंदिरा के निजी सचिव आर.के.धवन के मुताबिक तो इंदिरा ने अपनी सत्ता बचाने के लिए आपातकाल नहीं लगाया था, बल्कि वह तो इस्तीफा देने को तैयार थीं, लेकिन उनका मंत्रीमंडल उन्हें इस्तीफा नहीं देने देना चाहता था।
आपातकाल के दौरान, जनता को क्या-क्या झेलना पड़ा ?
आपातकाल के दौरान मीसा और डीआरआई कानूनों के तहत बहुत सी गिरफ्तारियां हुई। बहुत से विपक्षी नेताओं ,पत्रकारों ,सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि गिरफ्तार होने लगे। गिरफ्तारी के लिए मीसा जैसे कानून के जरिए कोई कारण बताना, कोर्ट में पेशी जैसे अधिकार ज़रुरी नहीं रहते, इसी कारणवश काफी लोग तो पूरे 21 महीनों तक जेल में रहे थे। आपातकाल का वक्त कुछ ऐसा था कि लोग दफ्तर तो आ जा सकते थे, लेकिन किसी भी तरह का सरकारी विरोध जाहिर नहीं कर सकते थे। प्रशासन और अधिकारियों को हद से ज्यादा छूट मिल गई थी, जिसके कारण काफी प्रताड़नाएँ लोगों ने झेली।

संक्षेप में जानते हैं कि आपातकाल में देशवासियों ने क्या-क्या झेला –
- सरकार विरोधी स्वर उठे उससे पहले ही गिरफ्तारी। मीसाबंधियों से जेल भर चुके थे।
- रातों-रात प्रेस की बिजली काट देना, प्रेस सेंसरशिप लगाना, और हर खबर को सेंसर करने हेतु एक सेंसर अधिकारी की नियुक्ति होना।
- मौलिक अधिकारों का हनन हुआ, जिसके तहत स्वतंत्र देश के नागरिक स्वतंत्र न रह सके।
- साल 1976 में जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर जबरन नसबंदी कराई गई। जानकारों के मुताबिक करीब 62 लाख लोगों की नसबंदी हुई। साथ ही गलत ऑपरेशन की और संक्रमण फैलने की वजह से बहुत लोगों ने अपनी जान तक गवाई।
- आधुनिकरण के नाम पर तुर्कमान गेट इलाके में बुलडोज़र चलवाया गया, और बसी बसाई झोपड़ियाँ गिराई गई, लोगों ने विरोध किया तो उन पर गोलियां चली जिसमें कई लोगों की जान तक गई।
- साथ ही विदेशी मीडिया के संवाददाताओं को निर्वासित कर दिया गया।
- आपातकाल का असर सिनेमा पर भी पड़ा। संगीतकार किशोर कुमार जैसी बड़ी हस्ती को भी सरकारी तानाशाही देखने को मिली। जब कांग्रेस की रैली के दौरान किशोर कुमार को सरकार के प्रचार का गाना गाने को कहा गया, हालांकि उन्होंने मना कर दिया। नतीजा ये रहा कि ऑल इंडिया रेडियो पर किशोर कुमार के गाने बजाने पर औपचारिक प्रतिबंध लगा दिया गया।
- हिंदी फिल्मों जैसे किस्सा कुर्सी का और आंधी को तो आपातकाल के दौरान प्रतिबंध किया गया। वहीं सुपरहिट फिल्म शोले के आखिरी सीन को सेंसर बोर्ड ने हटवाया, जिस से रमेश सिप्पी काफी क्रोधित भी हो गए थे, लेकिन दौर आपातकाल का था, इसलिए उस सीन को दोबारा सेंसर बोर्ड के निर्देशानुसार शूट किया गया।
जे.पी (जय प्रकाश ) नारायण की भूमिका
साल 1973 और 1974 ऐसे महत्त्वपूर्ण साल रहे जब लोकतांत्रिक देश ने कई दमदार छात्र आंदोलन देखें, जिसके परिणाम स्वरुप बिहार और गुजरात दोनों राज्य के मुख्यमंत्रियों को अंततः त्यागपत्र देना पड़ा। 1974 में बिहार में शुरु हुए छात्र आंदोलन ने एक ऐसे आंदोलन की नीव रखीं जिसे देश के इतिहास में एक अलग ही मुकाम हासिल है। जिसने स्वतंत्रता सेनानी जे.पी नारायण को लोकनायक के रुप में प्रख्यात किया। ये आंदोलन था संपूर्ण क्रांति आंदोलन। यह आंदोलन करीब 1 साल तक चला और इस आंदोलन का अंत आपातकाल के अंत या यूं कहें कि इंदिरा की हार के साथ ही हुआ।

संपूर्ण क्रांति आंदोलन के तहत जेपी ने एक अलग ही राजनैतिक और सामाजिक बदलाव की ओर देश को प्रेरित किया। वैसे जेपी उन दिनों राजनीति में सक्रिय नहीं थे, लेकिन देश के बिगड़ते हालातों से अवगत थे और देश में फैले जन आक्रोश से वाकिफ भी थे। यही कारण था कि जेपी ने बिहार में छात्र आंदोलन की कमान अपनी शर्तानुसार संभाली, और इंदिरा सरकार के अलोकतांत्रिक फैसलों के विरुद्ध आवाज़ उठाई। साथ ही जनता के हित में आंदोलन शुरु किया। 5 जून 1974 को, पटना के गांधी मैदान से जेपी ने इंदिरा के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। जेपी ने कहा कि संपूर्ण क्रांति में 7 क्रांति शामिल हैं- राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौधिक, शैक्षणिक व अध्यात्मिक क्रांति।
5 जून की विशाल रैली के माध्यम से जेपी ने कहा कि “संपूर्ण क्रांति से मेरा मतलब समाज के सबसे अधिक दबे- कुचले व्यक्ति को सत्ता के शिखर पर देखना है”। जेपी के आंदोलन में देश का मज़दूर वर्ग, छात्र, मध्यम वर्ग, बुद्धिजीवि इत्यादी शामिल थे। जेपी के आंदोलन को लाखों की संख्या में जनता का साथ मिला और ये आंदोलन धीरे-धीरे बड़ा होता जा रहा था। तभी 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी की रैली हुई, और उनके साथ लाखों की तादात में आमजनता थी। वहीं जनता को संबोधित करते हुए जेपी ने रामधारी सिंह दिनकर की मशहूर कविता की पंक्तियां बोली और सीधा निशाना तत्कालिन इंदिरा सरकार पर किया- “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है”।
उसी दिन मध्यरात्रि को देश में आपातकाल लगा दिया गया। इसके बाद विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी हुई जिसमें जेपी भी शामिल थे। लेकिन लोकनायक ने गलत के विरुद्ध आवाज़ उठाना जारी रखा, और ऐसे ही ये आंदोलन करीब 1 साल चला। आपातकाल जैसी विषम परिस्थिति में भी जनता और खासकर छात्रों के समर्थन से यह आंदोलन चला और जनाक्रोश बढ़ता रहा। जेपी के आंदोलन और जनता के आक्रोश का नतीजा था कि, इंदिरा गांधी को 1977 में आपातकाल का ख़त्म करना पड़ा।
सेंसरशिप के बावजूद आपातकाल की जानकारी लोगों को कैसे मिली ?
वियोन मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक प्रेस की रातों-रात बिजली काट दी गई और केवल दो अखबार ही कुछ व्यवस्था कर ख़बर छाप पाए, और बाकी अखबारों को 28 जून तक इंतज़ार करना पड़ा। लेकिन 28 जून के बाद प्रेस स्वतंत्र हो गया और अपनी इच्छानुसार जो चाहे वो छाप सकता था, ऐसा कुछ नहीं था, बल्कि अखबार क्या छापेंगे क्या नहीं, ये सुनिश्चित करने के लिए हर अखबार में एक सेंसर अधिकारी बैठा दिया था।

शाह कमीशन की रिपोर्ट से सामने आया कि आपातकाल के दौरान करीब 1 लाख से अधिक लोगों को जेल भेजा गया, जिसमें 2000 से ज़्यादा तो पत्रकार ही थे। ऐसे कठिन समय में जनता को यह पता ही नहीं चल पाता था कि देश में क्या चल रहा है? जो लोग गिरफ्तार हो रहे थे, उनके परिचितों को भी हफ्तों बाद मालूम पड़ता था कि वो जेल में है। ऐसे में आरएसएस और उनके कार्यकर्ताओं ने बड़ी भूमिका निभाई। जिसमें प्रधानमंत्री मोदी भी शामिल थे। सूचना-प्रसार की ज़िम्मेदरी लेते हुए, इन्होंने एक नए तरीके से लोगों को जानकारी पहुँचाने का ज़िम्मा लिया।
तत्कालिन सरकार की ज्यादतियां,या संविधान से जुड़ी जानकारी देने वाले साहित्य गुजरात से दूसरे राज्यों में जाने वाली ट्रेनों में रखे जाते थे। जोकि एक असान काम नहीं था, काफी जोख़िम भरा था, क्योंकि रेलवे पुलिस बल को किसी भी संदिग्ध को गोली मारने का निर्देश दिया गया था और इस सबके अतिरिक्त सबसे ज़्यादा जानकारी आपातकाल का ख़त्म होने के बाद से सामने आने लगी। जब रिहा हुए पत्रकार, नेता और बुद्धिजीवियों ने आपबीती सुनाई।
आपातकाल के परिणाम
इंदिरा ने जनवरी 1977 में लोकसभा भंग कर चुनाव की मांग की, जिससे आपातकाल का अंत हुआ। वहीं एक इंटरव्यू में आर.के.धवन ने बताया कि इंदिरा 1977 के चुनाव इसलिए करवाए थे, क्योंकि आईबी ने उनको बताया था कि वह चुनाव में 340 सीटें जीतेंगी, और यह आईबी रिपोर्ट उन्हें उनके प्रधान सचिव पीएन धर ने उन्हें दी थी। गौर करने की बात यह भी है कि एक इंटरव्यू में इंदिरा गांधी ने यह स्वयं कुबूला कि इंडिया को एक शॉक ट्रीटमेंट की ज़रूरत थी, इसलिए आपातकाल लगाया गया और एक अमेरिकी लेखक को इंटरव्यू देते हुए इंदिरा ने यह भी कहा कि आपातकाल के समय देश में काफी विकास हुआ, जैसे- विदेशी मुद्रा भंडार में इज़ाफा, औद्योगिक उत्पादन बढ़ा, मंहगाई कम हुई और देश में भ्रष्टाचार पर लगाम लगी।

जिसके चलते लोगों ने उनसे यह भी कहा कि आखिर देश में आपातकाल का फैसला पहले क्यों नहीं लिया गया? लेकिन जनता क्या चाहती थी क्या नहीं इसका परिणाम आपातकाल के बाद चुनाव में देश को पता चल गया। यूं तो आपातकाल की सीमा 6 महीने की होती है, जिसके बाद चुनाव होना चाहिए, लेकिन इंदिरा इसकी सीमा बढ़ाती गईं और ऐसे ही 1975 से 1977 आ गया और अंततः जनवरी 1977 में इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग करने की सिफारिश की और मार्च 1977 में चुनाव हुए जिसमें फलस्वरूप कांग्रेस को बहुत करारी हार का सामना करना पड़ा और देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। यह सरकार थी जनता पार्टी की- जनता पार्टी सभी विपक्षी नेताओं ने मिलकर बनाई, जिसमें प्रधानमंत्री पद के लिए मोरारजी देसाई को चुना गया। लेकिन गुटबाज़ी के चलते यह सरकार केवल 18 महीने ही चल सकी।
सिनेमा आपातकाल के बाद, आपातकाल की याद में!
नई सत्ता के आते ही जिन-जिन फिल्मों पर प्रतिबंध लगाया गया था, उन सब पर से प्रतिबंध हटा दिया गया। ऐसी ही कुछ और फिल्में भी हैं जो आप देख सकते हो, जो तथाकथित गांधी परिवार और आपातकाल से जुड़ी हैं, जो इस प्रकार हैं- इंदु सरकार (2017), साथ ही एक डॉक्यूमेंट्री भी है जो कि साल 2017 की ही है- 21 मंथस ऑफ हैल , इसके अतिरिक्त पुरानी फिल्म भी हैं – नसबंदी (1978) और किस्सा कुर्सी का (1977)
– Rashi Dubey
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