डॉ. नामवर सिंह कहते हैं कि ”छायावाद की विशिष्टता उसकी दृष्टि में है। महत्वपूर्ण यह नहीं कि छायावाद ने प्रकृति चित्रण पर बल दिया, महत्वपूर्ण यह है कि छायावाद ने प्रकृति के सौंदर्य को विशेष दृष्टि से देखा.”
छायावाद काल की शुरुआत सन् 1918 से 1936 तक मानी जाती है. इसमें मानववाद, रहस्यवाद, आध्यात्मवाद, दुःखवाद, व्यक्तिवाद का विस्तृत रूप देखने को मिलता है. छायावाद में वेदना और करुणा की मार्मिक भावना, भावुकता और कल्पना, सौंदर्य चेतना, प्रकृति चित्रण, रहस्यानुभूत, वैयक्तिकता, स्वातंत्र्य चेतना व राष्ट्रीयता इसकी विशिष्ट पहचान रही है. इस काल के प्रमुख कवि महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पंत को माना जाता है. इन सभी कवियों में छायावाद के गुण को विश्वसनीय बनाया है, लेकिन सुमित्रानंदन पंत ने छायावाद के सभी मूल्यों को अपनाया है. इसलिए उन्हें पर्याय की संज्ञा भी कहा जाता है. इन्हें हिंदी में प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा भी गया है.
छायावाद काल की श्रेष्ठ कविता
गीत गाने दो मुझे – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
गीत गाने दो मुझे तो,
वेदना को रोकने को।
चोट खाकर राह चलते
होश के भी होश छूटे,
हाथ जो पाथेय थे, ठग-
ठाकुरों ने रात लूटे,
कंठ रुकता जा रहा है,
आ रहा है काल देखो।
भर गया है ज़हर से
संसार जैसे हार खाकर,
देखते हैं लोग लोगों को,
सही परिचय न पाकर,
बुझ गई है लौ पृथा की,
जल उठो फिर सींचने को।
सब जीवन बीता जाता है – जयशंकर प्रसाद
सब जीवन बीता जाता है
धूप छाँह के खेल सदॄश
सब जीवन बीता जाता है
समय भागता है प्रतिक्षण में,
नव-अतीत के तुषार-कण में,
हमें लगा कर भविष्य-रण में,
आप कहाँ छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है
बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,
मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके,
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीता जाता है
वंशी को बस बज जाने दो,
मीठी मीड़ों को आने दो,
आँख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है
सब जीवन बीता जाता है।
तम में बनकर दीप – महादेवी वर्मा
उर तिमिरमय घर तिमिरमय
चल सजनि दीपक बार ले!
राह में रो रो गये हैं
रात और विहान तेरे
काँच से टूटे पड़े यह
स्वप्न, भूलें, मान तेरे;
फूलप्रिय पथ शूलमय
पलकें बिछा सुकुमार ले!
तृषित जीवन में घिर घन-
बन; उड़े जो श्वास उर से;
पलक-सीपी में हुए मुक्ता
सुकोमल और बरसे;
मिट रहे नित धूलि में
तू गूँथ इनका हार ले!
मिलन वेला में अलस तू
सो गयी कुछ जाग कर जब,
फिर गया वह, स्वप्न में
मुस्कान अपनी आँक कर तब।
आ रही प्रतिध्वनि वही फिर
नींद का उपहार ले!
चल सजनि दीपक बार ले!
मानव – सुमित्रानंदन पंत
सुन्दर हैं विहग, सुमन सुन्दर,
मानव! तुम सबसे सुन्दरतम,
निर्मित सबकी तिल-सुषमा से
तुम निखिल सृष्टि में चिर निरुपम!
यौवन-ज्वाला से वेष्टित तन,
मृदु-त्वच, सौन्दर्य-प्ररोह अंग,
न्योछावर जिन पर निखिल प्रकृति,
छाया-प्रकाश के रूप-रंग!
धावित कृश नील शिराओं में
मदिरा से मादक रुधिर-धार,
आँखें हैं दो लावण्य-लोक,
स्वर में निसर्ग-संगीत-सार!
पृथु उर, उरोज, ज्यों सर, सरोज,
दृढ़ बाहु प्रलम्ब प्रेम-बन्धन,
पीनोरु स्कन्ध जीवन-तरु के,
कर, पद, अंगुलि, नख-शिख शोभन!
यौवन की मांसल, स्वस्थ गंध,
नव युग्मों का जीवनोत्सर्ग!
अह्लाद अखिल, सौन्दर्य अखिल,
आः प्रथम-प्रेम का मधुर स्वर्ग!
आशाभिलाष, उच्चाकांक्षा,
उद्यम अजस्र, विघ्नों पर जय,
विश्वास, असद् सद् का विवेक,
दृढ़ श्रद्धा, सत्य-प्रेम अक्षय!
मानसी भूतियाँ ये अमन्द,
सहृदयता, त्याद, सहानुभूति,–
हो स्तम्भ सभ्यता के पार्थिव,
संस्कृति स्वर्गीय,–स्वभाव-पूर्ति!
मानव का मानव पर प्रत्यय,
परिचय, मानवता का विकास,
विज्ञान-ज्ञान का अन्वेषण,
सब एक, एक सब में प्रकाश!
प्रभु का अनन्त वरदान तुम्हें,
उपभोग करो प्रतिक्षण नव-नव,
क्या कमी तुम्हें है त्रिभुवन में
यदि बने रह सको तुम मानव!
– Nikhil